सोमवार, सितंबर 26, 2011

शिव पंचाक्षर स्त्रोत.....


































नागेंद्रहाराय त्रिलोचनाय भस्मांग रागाय महेश्वराय 
नित्याय शुद्धाय दिगंबराय तस्मे न काराय नम: शिवाय:॥
मंदाकिनी सलिल चंदन चर्चिताय नंदीश्वर प्रमथनाथ महेश्वराय
मंदारपुष्प बहुपुष्प सुपूजिताय तस्मे म काराय नम: शिवाय:॥
शिवाय गौरी वदनाब्जवृंद सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय 
श्री नीलकंठाय वृषभद्धजाय तस्मै शि काराय नम: शिवाय:॥
वषिष्ठ कुभोदव गौतमाय मुनींद्र देवार्चित शेखराय चंद्रार्क
वैश्वानर लोचनाय तस्मै व काराय नम: शिवाय:॥
यज्ञस्वरूपाय जटाधराय पिनाकस्ताय सनातनाय 
दिव्याय देवाय दिगंबराय तस्मै य काराय नम: शिवाय:॥
पंचाक्षरमिदं पुण्यं य: पठेत शिव सन्निधौ शिवलोकं
वाप्नोति शिवेन सह मोदते॥
शिव पंचाक्षर स्त्रोत भक्तों की हर मनोकामना पूरी करता है।

शुक्रवार, सितंबर 23, 2011

रहस्य ...............


































हमारे चित्त की स्थिति हम जैसी बनाए रखेंगे, यह दुनिया भी ठीक वैसी बन जाती है। न मालूम कौन-सा चमत्कार है कि जो आदमी भला होना शुरू होता है, यह सारी दुनिया उसे एक भली दुनिया में परिवर्तित हो जाती है। और जो आदमी प्रेम से भरता है, इस सारी दुनिया का प्रेम उसकी तरफ प्रवाहित होने लगता है। और यह नियम इतना शाश्वत है कि जो आदमी घृणा से भरेगा, प्रतिकार में घृणा उसे उपलब्ध होने लगेगी। हम जो अपने चारों तरफ फेंकते हैं, वही हमें उपलब्ध हो जाता है। इसके सिवाय कोई रास्ता भी नहीं है।
तो चौबीस घंटे उन क्षणों का स्मरण करें, जो जीवन में अदभुत थे, ईश्वरीय थे। वे छोटे-छोटे क्षण, उनका स्मरण करें और उन क्षणों पर अपने जीवन को खड़ा करें। और उन बड़ी-बड़ी घटनाओं को भी भूल जाएं, जो दुख की हैं, पीड़ा की हैं, घृणा की हैं, हिंसा की हैं। उनका कोई मूल्य नहीं है। उन्हें विसर्जित कर दें, उन्हें झड़ा दें। जैसे सूखे पत्ते दरख्तों से गिर जाते हैं, वैसे जो व्यर्थ है, उसे छोड़ते चले जाएं; और जो सार्थक है और जीवंत है, उसे स्मरणपूर्वक पकड़ते चले जाएं। चौबीस घंटे इसका सातत्य रहे। एक धारा मन में बहती रहे शुभ की, सौंदर्य की, प्रेम की, आनंद की।  
तो आप क्रमशः पाएंगे कि जिसका आप स्मरण कर रहे हैं, वे घटनाएं बढ़नी शुरू हो गयी हैं। और जिसको आप निरंतर साध रहे हैं, उसके चारों तरफ दर्शन होने शुरू हो जाएंगे। और तब यही दुनिया बहुत दूसरे ढंग की दिखायी पड़ती है। और तब ये ही लोग बहुत दूसरे लोग हो जाते हैं। और ये ही आंखें और ये ही फूल और ये ही पत्थर एक नए अर्थ को ले लेते हैं, जो हमने कभी पहले जाना नहीं था। क्योंकि हम कुछ और बातों में उलझे हुए थे। तो मैंने जो कहा, ध्यान में जो अनुभव हो--थोड़ा-सा भी प्रकाश, थोड़ी-सी भी किरणें, थोड़ी-सी भी शांति--उसे स्मरण रखें। जैसे एक छोटे-से बच्चे को उसकी मां सम्हालती है, वैसे जो भी छोटी-छोटी अनुभूतियां हों, उन्हें सम्हालें। उन्हें अगर नहीं सम्हालेंगे, वे मर जाएंगी। और जो जितनी मूल्यवान चीज होती है, उसे उतना सम्हालना होता है।जानवरों के भी बच्चे होते हैं, उनको सम्हालना नहीं होता। और जितने कम विकसित जानवर हैं, उनके बच्चों को उतना ही नहीं सम्हालना होता, वे अपने आप सम्हल जाते हैं। जैसे-जैसे विकास की सीढ़ी आगे बढ़ती है, वैसे-वैसे आप पाते हैं--अगर मनुष्य के बच्चे को न सम्हाला जाए, वह जी ही नहीं सकता। मनुष्य के बच्चे को न सम्हाला जाए, वह जी नहीं सकता। उसके प्राण समाप्त हो जाएंगे। जो जितनी श्रेष्ठ स्थिति है जीवन की, उसे उतने ही सम्हालने की जरूरत पड़ती है। तो जीवन में भी जो अनुभूतियां मूल्यवान हैं, उनको उतना ही सम्हालना होता है। उतने ही प्रेम से उनको सम्हालना होता है। तो छोटे-से भी अनुभव हों, उन्हें सम्हालें; वैसे ही जैसे...। आपने पूछा, कैसे सम्हालें? अगर मैं आपको कुछ हीरे दे दूं, तो आप उन्हें कैसे सम्हालेंगे? अगर आपको कोई बहुमूल्य खजाना मिल जाए, उसे आप कैसे सम्हालेंगे? उसे आप कैसे सम्हालेंगे? उसे आप कहां रखेंगे? उसे आप छिपाकर रखना चाहेंगे; उसे अपने हृदय के करीब रखना चाहेंगे।..........ओशो












बुधवार, सितंबर 21, 2011

''मौत'' इतनी हसीन होती है...........



















मैंने अपने मौत पे क्या खूब कहा ----
ज़िन्दगी में दो पल कोई मेरे पास न बैठा ,,,
आज सब मेरे पास बैठे जा रहे थे .........कोई  
तौफा न मिला आज तक मुझे और आज  
फूल ही फूल दिए जा रहे थे .....तरस  गए 
हम किसी के हाथ से दिए एक कपडे को  
और आज नए -2 कपडे ओढ़ाये जा रहे थे ,,,
दो कदम साथ चलने को तैयार न था कोई ,,,
और आज काफिला बनकर जा रहे थे ........
आज पता चला ''मौत'' इतनी हसीन होती  है ,,,
कमबख्त ''हम'' तो यु ही जियें जा रहे थे ,,,,,,

सोमवार, सितंबर 19, 2011

























ईश्वर का ध्यान करना.....
निःस्वार्थ भाव से आराधना करना.....
यथोचित मंत्रोच्चार करना.....
इन सभी प्रवृतियों से इंसान में मनुष्यता का जन्म होता है.....
यदि यह प्रवृतियाँ निरंतर चलती रहें.....
तो इंसान की आत्मा पवित्रता प्राप्त करती है.

प्यार हर सम्बन्ध का आधार है........





















प्यार हर सम्बन्ध का आधार है
प्यार से मन को मिला विस्तार है
ज़िन्दगी निःसार है बिन प्यार के
प्यार जीवन का सहज सिंगार है।

प्रेम-पथ की यात्रा अविराम है
सार्थक लेकिन सदा निष्काम है
प्यार का अभिप्राय चंचलता नहीं,
प्यार अविचल साधना का नाम है।

प्यार है अनमोल धन स्वीकार कर
मत कभी इस सत्य से इनकार कर
क्या पता भगवान कब किसको मिले,
बस अभी इंसान से तू प्यार कर।

रविवार, सितंबर 11, 2011

माया क्या है ...................





















शरीर सुख के लिए अन्य मूल्यवान पदार्थों को खर्च
कर देते हैं कारण यही है कि वे मूल्यवान पदार्थ शरीर
सुख के मुकाबले में कमतर जँचते हैं। लोग शरीर 
सुख की आराधना में लगे हुए हैं परन्तु एक बात 
भूल जाते हैं कि शरीर से भी ऊँची कोई वस्तु है ।
वस्तुत: आत्मा शरीर से ऊँची है। आत्मा के आनन्द
के लिए शरीर या उसे प्राप्त होने वाले सभी सुख तुच्छ हैं।
अपने दैनिक जीवन में पग- पग पर मनुष्य 'बहुत के 
लिये थोड़े का त्याग' की नीति को अपनाता है, परन्तु 
अन्तिम स्थान पर आकर यह सारी चौकड़ी भूल जाता है। 
जैसे शरीर सुख के लिए पैसे का त्याग किया जाता है वैसे
ही आत्म - सुख के लिए शरीर सुख का त्याग करने में
लोग हिचकिचाते हैं, यही माया है। पाठक इस बात को
भली भाँति जानते हैं कि अन्याय, अनीति, स्वार्थ, 
अत्याचार, व्यभिचार, चोरी, हिंसा, छल, दम्भ, पाखण्ड,
असत्य, अहंकार, आदि से कोई व्यक्ति धन इकट्ठा कर
सकता है, भोग पदार्थों का संचय कर सकता है, इन्द्रियों 
को कुछ क्षणों तक गुदगुदा सकता है, परन्तु आत्म-सन्तोष
प्राप्त नहीं कर सकता।

तुम्ही मिटाओ मेरी उलझन.............





















तुम्ही मिटाओ मेरी उलझन,कैसे कहूँ कि तुम कैसी हो
कोई नहीं सृष्टि में तुम-सा,माँ तुम बिलकुल माँ जैसी हो। 
ब्रह्मा तो केवल रचता है,तुम तो पालन भी करती हो
शिव हरते तो सब हर लेते,तुम चुन-चुन पीड़ा हरती हो
किसे सामने खड़ा करूँ मैं,और कहूँ फिर तुम ऐसी हो।
माँ तुम बिलकुल माँ जैसी हो।। 
ज्ञानी बुद्ध प्रेम बिना सूखे,सारे देव भक्ति के भूखे
लगते हैं तेरी तुलना में,ममता बिन सब रुखे-रुखे
पूजा करे सताए कोई,सब के लिए एक जैसी हो।
माँ तुम बिलकुल माँ जैसी हो।।
कितनी गहरी है अदभुत-सी,तेरी यह करुणा की गागर
जाने क्यों छोटा लगता है,तेरे आगे करुणा-सागर
जाकी रही भावना जैसी,मूरत देखी तिन्ह तैसी हो।
माँ तुम बिलकुल माँ जैसै हो।।
मेरी लघु आकुलता से ही,कितनी व्याकुल हो जाती हो
मुझे तृप्त करने के सुख में,तुम भूखी ही सो जाती हो।
सब जग बदला मैं भी बदला,तुम तो वैसी की वैसी हो।
माँ तुम बिलकुल माँ जैसी हो।।
तुम से तन मन जीवन पाया,तुमने ही चलना सिखलाया
पर देखो मेरी कृतघ्नता,काम तुम्हारे कभी न आया
क्यों करती हो क्षमा हमेशा,तुम भी तो जाने कैसी हो।
माँ तुम बिलकुल माँ जैसी हो।।

शुक्रवार, सितंबर 09, 2011

मेरा मधुर बचपन ............














बार बार आती हैं मुझको
तेरी मधुर यादें ....
हर लम्हा खुबसूरत बीता तेरे साथ 
याद हैं मुझे............
रोते रोते हँसना, हँसते-हँसते रोना 
क्यों ? चला गया तू ..........
ये सवाल आज भी हैं, इन भीगी पलकों में 
ऐ मेरे मधुर''बचपन "!!!!!!!!!!!!!


गुरुवार, सितंबर 08, 2011

प्रेम...........


















यदि हम किसी को अपना प्रेम प्रदर्शित करना चाहते हैं ,तो जिससे प्रेम करते हैं ,उसे मुक्त कर दीजिये अपने पाशों से |उसकी नीव मज़बूत
कीजिये ,पूरा साथ दीजिये किन्तु मुक्त भाव से |प्रेम में न कुछ दिया जाता है और न ही कुछ लिया जाता है ,यह भी एक परमात्मा तत्त्व की अनुभूति है ,जो होने के बात स्वयं ही उसका भाव आ जाता है इसलिए यदि स्वयं में किसी को जकड़ कर ,भावनात्मक रूप से ,अथवा कार्यात्मक रूप से यह अंदेशा जब होने लगे की हमें किसी की  परवाह करनी चाहिए तो यह समझ लीजियेगा की आप प्रेम नहीं कर रहे हैं ,बल्कि आप स्वयं तो बंधे हुए हैं अपने स्वार्थ के लिए प्रेम की दिखावा करके दुसरे को बाँध रहे हैं और मज़े की बात यह है की यह बात आप जानते हुए भी नहीं जान पा रहे हैं |प्रेम स्वतंत्रता का नाम है ,जो स्वयं से स्वतंत्र हो गया ,जिसने स्वयं से सबको स्वतंत्र कर दिया ,जो इसका अर्थ तक नहीं जानता और न ही उसे इस बात की कोई परवाह की इसकी परिभाषा क्या है ,उसे इतना सोचने की भी बंधन नहीं वह प्रेमी है और आप उससे कुछ नहीं पूछ सकते ,उसका अनुशरण करके भी कुछ हद तक उसके साथ चलने की कोशिश कर सकते हो ,यह केवल
निर्मलता से उत्पन्न होता है |

मंगलवार, सितंबर 06, 2011

मस्तिष्क वृक्ष की जड़ों के समान...........

























गीता में मनुष्य की तुलना एक ऐसे पीपल के
वृक्ष के साथ की है जिसकी जड़ें ऊपर और शाखा,
पत्ते नीचे हैं । मस्तिष्क ही जड़ है और शरीर उसका
वृक्ष। वृक्ष का ऊपर वाला भाग दिखाई पड़ता है,
जड़ें नीचे जमीन में दबी होने से दिखाई नहीं पड़तीं,
पर वस्तुत: जड़ों की प्रतिक्रिया, छाया-प्रतिध्वनि 
की परिणति ही वृक्ष का दृश्यमान कलेवर बनकर 
सामने आती है। जड़ों को जब पानी नहीं मिलता 
और वे सूखने लगती हैं, तो पेड़ का दृश्यमान ढाँचा 
मुरझाने, कुम्हलाने, सूखने और नष्ट होने लगता है । 
जड़ें गहरी घुसती जाती हैं, खाद-पानी पाती हैं तो पेड़ 
की हरियाली और अभिवृद्धि देखते ही बनती है ।
मनुष्य की स्थिति बिलकुल यही है । विचारणाएँ 
उसकी जड़ें हैं । चिन्तन का स्तर जैसा होता है, 
आस्थाएँ और आकांक्षाएँ जिस दिशा में चलती हैं,
बाह्य परिस्थितियाँ बिलकुल उसी के अनुरूप ढलती
हुई चलती हैं । आन्तरिक दरिद्रता ही बाहर की दरिद्रता
बनकर प्रकट होती रहती है । विद्या और ज्ञान की कमी 
विशुद्ध रूप से जिज्ञासा का अभाव ही है । प्रसन्न और
संतुष्ट रहना तो केवल उनके भाग्य में बदा होता है जो 
उपलब्ध साधनों से सन्तुष्ट रहना और उनका सदुपयोग
करना

सोमवार, सितंबर 05, 2011

जीने के चार महान तरीके.............




















तेरे इस  दुनिया  में ये   मंजर  क्यूँ  है  ??
कहीं  ज़ख़्म  तो  कही  पीठ  में  खंजर  क्यों  है 
सुना  है  तू  हर  ज़र्रे  में  रहता  है 
तो  फिर  ज़मी   पर  कही  मस्जिद  कही  मंदिर  क्यूँ  है 
जब  रहने  वाले  इस  दुनिया  के  हैं  तेरे  ही  बन्दे
तो  फिर  कोई  किसी  का  दोस्त  और  कोई  दुश्मन  क्यूँ  है  ?
तू  ही  लिखता  है  सब  लोगों  का  मुकद्दर 
तो  फिर  कोई  बदनसीब  और 
कोई  मुक़द्दर  का  सिकंदर  क्यूँ  है 
जीने के चार महान तरीके : -
1. पीछे देखो और भगवान को धन्यवाद दो !
2. आगे देखों और भगवान पर भरोसा रखो !
3. चारों ओर देखो और भगवान में विश्वास रखो !
4. अंदर देखो और भगवान को खोजो !

जिन्हें केवल बुरा पहलु देखना आता है......
























इन्टरनेट के विभिन्न साईट में, ग्रुप में प्रायः यही पढ़ने मिल रहा है 
 जिसमें कोई किसी धर्म, परम्पराओं, पंथ-मतों की आलोचना में 
अपनी पूरी शक्ति लगा रहा है, कोई किसी राजनैतिक भाषा में निंदा 
कर रहे हैं, कोई किसी संत की बखिया उधेड़ने में पूरा जोश और 
उत्साह खर्च कर रहे हैं . काश इस निंदा-आलोचना की अपेक्षा उनमें 
कुछ अच्छाइयां सूंघ लें तो स्वयं को भी कुछ सीख पाकर आगे बढ़ने 
का मार्ग प्रशस्त होता.. संत सुकरात से मिलने गए एक भक्त ने 
सुकरात से प्रश्न किया- " महात्मन ! चन्द्रमा में कलंक और दीपक 
तले अँधेरा क्यों रहता है ?" सुकरात ने उस भक्त से पूछा - " अच्छा
तुम यह बताओ- तुम्हें दीपक का प्रकाश और चन्द्रमा की ज्योति 
क्यों नहीं दिखाई देती ?" भक्त ने विचार किया - सचमुच संसार में
हर वस्तु में अच्छे और बुरे दो पहलु हैं. जो अच्छा पहलु देखते हैं, 
वे अच्छाई और जिन्हें केवल बुरा पहलु देखना आता है वे बुराई 
संग्रह करते हैं..

शुक्रवार, सितंबर 02, 2011

हे दुर्गे माँ........






















माँ 
थोड़ी दूर मेरे 
साथ चलो 
थोड़ी सी हिम्मत 
दे दो 
थोड़ा साहस 
बढ़ा दो 
थोड़ा सहारा 
दे दो 
चलने का तरीका 
सिखा दो 
ना थकने का 
रास्ता बता दो 
गड्डों से बचने की 
विधि समझा दो 
माँ थोड़ी दूर मेरे 
साथ चलो 
चलने का कारण 
समझा दो 
गिर कर फिर 
उठ सकूँ 
निरंतर चल सकूँ 
वो ढंग बता दो 
मुझे मंजिल का पता 
बता दो 
माँ थोड़ी दूर मेरे 
साथ चलो
माँ