गीता में मनुष्य की तुलना एक ऐसे पीपल के
वृक्ष के साथ की है जिसकी जड़ें ऊपर और शाखा,
पत्ते नीचे हैं । मस्तिष्क ही जड़ है और शरीर उसका
वृक्ष। वृक्ष का ऊपर वाला भाग दिखाई पड़ता है,
जड़ें नीचे जमीन में दबी होने से दिखाई नहीं पड़तीं,
पर वस्तुत: जड़ों की प्रतिक्रिया, छाया-प्रतिध्वनि
की परिणति ही वृक्ष का दृश्यमान कलेवर बनकर
सामने आती है। जड़ों को जब पानी नहीं मिलता
और वे सूखने लगती हैं, तो पेड़ का दृश्यमान ढाँचा
मुरझाने, कुम्हलाने, सूखने और नष्ट होने लगता है ।
जड़ें गहरी घुसती जाती हैं, खाद-पानी पाती हैं तो पेड़
की हरियाली और अभिवृद्धि देखते ही बनती है ।
मनुष्य की स्थिति बिलकुल यही है । विचारणाएँ
उसकी जड़ें हैं । चिन्तन का स्तर जैसा होता है,
आस्थाएँ और आकांक्षाएँ जिस दिशा में चलती हैं,
बाह्य परिस्थितियाँ बिलकुल उसी के अनुरूप ढलती
हुई चलती हैं । आन्तरिक दरिद्रता ही बाहर की दरिद्रता
बनकर प्रकट होती रहती है । विद्या और ज्ञान की कमी
विशुद्ध रूप से जिज्ञासा का अभाव ही है । प्रसन्न और
संतुष्ट रहना तो केवल उनके भाग्य में बदा होता है जो
उपलब्ध साधनों से सन्तुष्ट रहना और उनका सदुपयोग
करना
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