मंगलवार, नवंबर 01, 2011

मॉंस मनुष्यता को त्याग कर ही खाया जा सकता है........

























करुणा की प्रवृत्ति अविछिन्न है । उसे मनुष्य और पशुओं के बीच विभाजित नहीं किया जा सकता । पशु-पक्षियों के प्रति बरती जाने वाली निर्दयता मनुष्यों के साथ किये जाने वाले व्यवहार को भी प्रभावित करेगी । जो मनुष्यों से प्रेम और सद्व्यवहार का मर्म समझता है वह पशु-पक्षियों के प्रति निर्दय नहीं हो सकता । भारत यात्रा करने वाले सुप्रसिद्ध फाह्यान, मार्कोपोलो सरीखे विदेशी यात्रियों ने अपनी भारत यात्राओं के विशद् वर्णनों में यही लिखा है - भारत में चाण्डालों के अतिरिक्त और कोई सभ्य व्यक्ति माँस नहीं खाता था । धार्मिक दृष्टि से तो इसे सदा निन्दनीय पाप कर्म बताया जाता रहा है । बौद्ध और जैन धर्म तो प्रधानतया अहिंसा पर ही आधारित है । वैष्णव धर्म भी इस सम्बन्ध में इतना ही सतर्क है । वेद, पुराण, स्मृति, सूत्र आदि हिन्दू धर्म-ग्रंथों में पग-पग पर मॉंसाहार की निन्दा और निषेध भरा पड़ा है । बाइबिल में कहा गया है - ऐ देखने वाले देखता क्यों है, इन काटे जाने वाले जानवरों के विरोध में अपनी जुबान खोल । ईसा कहते थे -किसी को मत मार । प्राणियों की हत्या न कर और मॉंस न खा । कुरान में लिखा है - हरा पेड़ काटने वाले, मनुष्य बेचने वाले, जानवरों को मारने वाले और पर स्त्रीगामी को खुदा माफ नहीं करता । जो दूसरों पर रहम करेगा, वही खुदा की रहमत पायेगा । हमें बढ़ते हुए मॉंसाहार की प्रवृति में होने वाली हानियों पर विचार करना चाहिए और अपनी मूल प्रकृति एवं प्रवृत्ति के अनुकूल आचरण करना चाहिए ताकि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य नष्ट होने से बच सके । निष्ठुरता और क्रूरता का दूसरा नाम ही माँसाहार है । अच्छा हो हम अपनी प्रकृति में से इन तत्त्वों को निकाले अन्यथा हमारा व्यवहार मनुष्यों के प्रति भी इन्हीं दुर्गुणों से भरा होगा और संसार में नरक के दृश्य दीखेंगे ।

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