गुरुवार, दिसंबर 27, 2012

वही व्‍यक्‍ति जीता है जो मरने के लिए तैयार है...


















" वही व्‍यक्‍ति जीता है जो मरने के लिए तैयार है। सच तो यह हे कि वही जीता है जो मृत्‍यु से राज़ी है। केवल वही व्‍यक्‍ति जीवन के योग्‍य है। क्‍योंकि वह भयभीत नहीं है, जो व्‍यक्‍ति मृत्‍यु को स्‍वीकार करता है, मृत्‍यु का स्‍वागत करता है, मेहमान मानकर उसकी आवभगत करता है। उसके साथ रहता है। वही व्‍यक्‍ति जीवन में गहरे उतर सकता है।

जब एक कुत्‍ता मरता है तो दूसरे कुत्‍ते को कभी पता नहीं होता की मैं भी मर सकता हूं। जब भी मरता है, कोई दूसरा ही मरता है। तो कोई कुत्‍ता कैसे कल्‍पना करे के मैं भी मरने वाला हूं। उसने कभी अपने को मरते नहीं देखा। सदा किसी दूसरे ही मरते है। वह कैसे कल्‍पना करे, कैसे निष्‍पति निकाले कि मैं भी मरूंगा। पशु को मृत्‍यु का बोध नहीं होता। इसलिए कोई पशु संसार का त्‍याग नहीं करता। कोई पशु संन्‍यासी नहीं हो सकता है।

केवल एक बहुत ऊंची कोटि की चेतना ही तुम्‍हें संन्‍यास की तरफ ले जा सकती है। मृत्‍यु के प्रति जागने से ही संन्‍यास घटित होता है। और अगर आदमी होकर भी तुम मृत्‍यु के प्रति जागरूक नहीं हो तो तुम अभी पशु ही हो। मनुष्‍य नहीं हुए हो। मनुष्‍य तो तुम तभी बनते हो जब मृत्‍यु का साक्षात्‍कार करते हो। अन्‍यथा तुममें और पशु में कोई फर्क नहीं है। पशु और मनुष्‍य में सब कुछ समान है, सिर्फ मृत्‍यु फर्क लाती है। मृत्‍यु का साक्षात्‍कार कर लेने के बाद तुम पशु नहीं रहते। तुम्‍हें कुछ घटित हुआ है जो कभी किसी पशु को घटित नहीं होता है। अब तुम एक भिन्‍न चेतना हो। "

~ ओशो, विज्ञानं भैरव तंत्र

रविवार, दिसंबर 02, 2012

बंधन.........




















बंधन - आत्‍माओं को मार डालते है, सड़ा डालते है।

जीवन को जबरदस्‍ती बंधनों में जीने से उचित है कि आदमी स्‍वतंत्रता से जीए। और बंधन जितने टूट जाएं उतना अच्‍छा है। क्‍योंकि बंधन केवल आत्‍माओं को मार डालते है, सड़ा डालते है। तुम्‍हारे जीवन को दूभर कर देते है।

जीवन एक सहज आनंद, उत्‍सव होना चाहिए। इसे क्‍यों इतना बोझिल, इसे क्‍यों इतना भारी बनाने की चेष्‍टा चल रही है? और मैं नहीं कहता हूं कि अपनी स्‍व-
स्‍फूर्त चेतना के विपरीत कुछ करो। किसी व्‍यक्‍ति को एक ही व्‍यक्‍ति के साथ जीवन-भर प्रेम करने का भव है—सुंदर है, अति सुंदर है। लेकिन यह भाव होना चाहिए आंतरिक। यह ऊपर से थोपा हुआ नहीं। मजबूरी में नहीं। नहीं तो उसी व्‍यक्‍ति से बदला लेगा वह व्‍यक्‍ति, उसी को परेशान करेगा। उसी पर क्रोध जाहिर करेगा।

शनिवार, नवंबर 10, 2012

ले आतिशबाजी न करने का संकल्प.......


















 आज प्रकृति असंतुलित  हो रही है,इसके  लिए मानव ही जिम्मेदार है।
ऐसे में हमें सचेत हो जाने की आवश्यकता है।दीपावली 
अध्यात्मिक रूप से महत्वपूर्ण है,साथ ही वैज्ञानिक रूप से
भी इसका महत्व है,तेल व घी से दिए जलाये जाते है,इससे 
वातावरण शुद्ध होता है,और कीड़े -मकोड़े मरते है,पटाखा छोड़ने 
का बहुत ही खतरा है,इससे निकलने वाला गैस भी हानिकारक है।
दीपावली दीयों का पर्व है न की आतिशबाजी का,आतिशबाजी का 
बहुत ही नुकसान है,रात भर आतिशबाजी से लोगों की नींद हराम 
 होती है,लोगों को  साँस लेने में परेशानी होती है,इससे पैसे की 
बर्बादी होती है,आतिशबाजी से हमें बचना चाहिए और हम सभी 
को आतिशबाजी न करने का संकल्प लेना चाहिए ....

बुधवार, सितंबर 12, 2012

सुसंस्कृत सन्तान के लिए पूर्व तैयारी आवश्यक......



















एक महात्मा के पास एक सती गई और बोली-महाराज चरणोदक दें तो मेरे गर्भ का बालक भी महान् बने। सन्त ने कहा-बेटी चरणोदक और आशीर्वाद से नहीं तुम्हारे रहन-सहन आहार-बिहार और आत्मिक शुद्धता से सन्तान महान् बनेगी।           
कपिल मुनि जिस रास्ते से गुरुकुल जाते, उसमें एक विधवा का घर पड़ता, विधवा की निर्धनता से दुःखी होकर वे एक दिन उसके पास जाकर बोले तुम चाहो तो आर्थिक सहायता का प्रबन्ध करा दूँ। विधवा ने कहा-मुनिवर आपने भूल की, मेरे तो एक अत्यन्त अमूल रत्न है? मुनि ने चारों तरफ दृष्टि दौड़ाई, कुछ दिखा नहीं। वे पूछ बैठे क्या वह रत्न मुझे भी दिखायेगी। अभी यह बात हो ही रही थी कि उसका पुत्र पढ़कर लौटा उसने माँ के पैर छूकर कहा-माँ आज भी मैंने अपना पाठ ठीक तरह पढ़ा लाओ कुल्हाड़ी अब लकड़ियाँ ले आऊँ? कपिल बच्चे के संस्कारों से बड़े प्रभावित हुए उन्होंने कहा-सचमुच संस्कारवान् पुत्र और रत्न में कोई अन्तर नहीं।
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गुरुवार, अगस्त 30, 2012

यह संसार कर्मफल व्यवस्था के आधार पर चल रहा है.....

























यह संसार कर्मफल व्यवस्था के आधार पर चल रहा है। 
जो जैसा बोता है वह वैसा काटता है। क्रिया की प्रतिक्रिया 
होती है। पेण्डुलम एक ओर चलता है तो लौट कर उसे फिर
 वापिस अपनी जगह आना पड़ता है। गेंद को जहाँ फेंक कर 
मारा जाय वहाँ से लौट कर उसी स्थान पर आना चाहेगी जहाँ
 से फेंकी गई थी। शब्द वेदी बाण की तरह भले बुरे विचार 
अन्तरिक्ष में चक्कर काट कर उसी मस्तिष्क पर आ विराजते हैं,
 जहाँ से उन्हें छोड़ा गया है। कर्म के सम्बन्ध में भी यही बात है।
 दूसरों के हित अनहित के लिए जो किया गया है उसकी प्रतिक्रिया
 कर्ता के ऊपर तो अनिवार्य रूप से बरसेगी, जिसके लिए वह कर्म
 किया गया था, उसे हानि या लाभ भले ही न हो। गेहूँ से गेहूँ
 उत्पन्न होता है और गाय अपनी ही आकृति प्रकृति का बच्चा जनती है। कर्म के सम्बन्ध में भी यही बात है, उनके प्रतिफल निश्चित रूप से उत्पन्न होते हैं। यदि ऐसा न होता तो इस सृष्टि में घोर अँधेरा छाया हुआ दिखता। तब कोई कुछ भी कर गुजरता और प्रतिफल की चिन्ता न करता।
 आज का बोया बीज कुछ समय बाद फल देता है- आज का जमाया दूध कल दही बनता है-आज का आरम्भ किया अध्ययन, व्यायाम, व्यवसाय तत्काल फल नहीं देता उसकी प्रतिक्रिया उत्पन्न होने में कुछ समय लग जाता है। इसी विलम्ब में मनुष्य की दूरदर्शिता और बुद्धिमतां की परीक्षा है। यदि तत्काल फल मिला करते तो किसी के भले बुरे का निर्णय करने की आवश्यकता ही न पड़ती। झूठ बोलने वाले का मुँह सूज जाया करता, कुदृष्टि डालने वालों की आँखें दर्द करने लगतीं, चोरी करने वालों के हाथों में गठिया हो जाता, तो फिर कोई व्यक्ति कुकर्म करता ही नहीं। ईश्वर ने मनुष्य के निजी विवेक और कर्म स्वातंत्र्य को कार्यान्वित होते रहने के लिए कर्म और फल के बीच अन्तर रखा है। इस धैर्य परीक्षा में जो असफल रहते हैं, वे सत्कर्मों की सुखद सम्भावना पर अविश्वास करके उन्हें छोड़ बैठते हैं और कुकर्मों का हाथों हाथ फल न मिलते देख कर उन पर टूट पड़ते हैं। ऐसी ही अदूरदर्शिता के कारण पक्षी बहेलिये के जाल में फँसते हैं, वे दाना देखते हैं फन्दा नहीं। आटे के लोभ में मछली अपनी गला फँसाती है और बेमौत मारी जाती है। चासनी के लाभ में अन्धाधुन्ध घुस पड़ने वाली मक्खी के पंख चिपक जाते हैं और तड़पते हुए प्राण जाते हैं। यह अदूरदर्शी प्राणी दुर्गति के शिकार बनते हैं। कर्मफल के अनिश्चित होने की बात सोच कर ही मनुष्य कुमार्ग पर चलते हैं- कुकर्म करते हैं और दुर्दशा के जंजाल में फँसते हैं।
 भगवान ने संसार बनाया और उसके साथ साथ ही कर्म प्रतिफल का सुनिश्चित संविधान रच दिया। अपनी निज की लीलाओं में भी उसने इस लक्ष्य को प्रकट किया है। भगवान राम ने बालि को छिपकर तीर मारा, अगली बार कृष्ण बन कर जन्मे राम को उस बहेलिया के तीर का शिकार होना पड़ा, जो पिछले जन्म में बालि था। राम के पिता दशरथ ने श्रवण कुमार के तीर मारा, उसके पिता ने शाप दिया कि युधकर्ता को मेरी तरह ही पुत्र शोक में बिलख बिलख कर मरना पड़ेगा। वैसा ही हुआ भी। राम अपने पिता की सहायता न कर सके और उन्हें कर्म का प्रतिफल भुगतना पड़ा। 
 चक्रव्यूह में फँस कर अभिमन्यु मारा गया, तो उसकी माता सुभद्रा ने अपने भाई कृष्ण से कहा, तुम तो अवतार थे तो फिर अपने भाँजे और अजुर्न सखा के पुत्र को क्यों नहीं बचाया। कृष्ण ने विस्तार पूर्वक कर्म फल की प्रबलता का वर्णन करते हुए सुभद्रा का समाधान किया कि भगवान से भी प्रारब्ध बड़ा है। कर्म फल भुगतने की विवशता हर किसी के लिए आवश्यक हैं।
 कर्म फल की सुनिश्चितता का तथ्य ऐसा है, जिसे अकाट्य ही समझना चाहिए। किये हुए भले बुरे कर्म अपने परिणाम सुख-दुःख के रूप में प्रस्तुत करते रहते हैं। दुःखों से बचना हो तो दुष्कर्मों से पिण्ड छुड़ाना चाहिए, सुख पाने की अभिलाषा हो तो सत्कर्म बढ़ाने चाहिए। ईश्वर को प्रसन्न और रुष्ट करने सत्कर्मों एवं दुष्कर्मों के आधार पर ही बन पड़ता है। शारीरिक एवं मानसिक रोग दुष्कर्मों के फल स्वरूप ही सामने आते हैं। आधि दैविक, आधि भौतिक आध्यात्मिक संकट भी इन्हीं अनाचरणों के कारण उत्पन्न होते हैं। इन विपत्तियों से बचने का एक ही उपाय है कि वर्तमान गतिविधियों का सजजनतापूर्ण निर्धारण किया जाय। भविष्य में दुष्कर्मों से विरत रहने का सुदृढ़ संकल्प किया और उसे निबाहा जाय। साथ ही भूत काल में जो कुकर्म बन पड़े हैं, उनका साहस पूर्वक प्रायश्चित किया जाय। उज्ज्वल भविष्य के निर्माण का यही कारगर उपाय है।


शनिवार, अगस्त 25, 2012

यह मत पूछिए कि हम क्या करें? यह पूछिए कि क्या बनें?

साधकों में से कई व्यक्ति हमसे यह पूछते रहते हैं कि हम क्या करें? मैं उनमें से हर एक से कहता हूँ कि यह मत पूछिए, बल्कि यह पूछिए कि क्या बनें? अगर आप कुछ बन जाते हैं तो करने में भी ज्यादा कीमती है वह। फिर जो कुछ भी कुछ भी आप कर रहे होंगे, वह सब सही हो रहा होगा। आप साँचा बनने की कोशिश करें। अगर आप साँचा बनेंगे तो जो भी गीली मिट्टी आपके सम्पर्क में आएगी, आपके ही तरीके के, आपके ही ढंग के, शक्ल के खिलौने बनते हुए चले जाएँगे। आप सूरज बनें तो आप चमकेंगे और चलेंगे। उसका परिणाम क्या होगा? जिन लोगों के लिए आप करना चाहते हैं, वे आपके साथ-साथ चमकेंगे और चलेंगे।..... हम चलें, हम प्रकाशवान हों, फिर देखेंगे कि जिस जनता के लिए आप चाहते थे कि वह हमारी अनुगामी बने और हमारी नकल करे तो वह ऐसा ही करेगी। आप देखेंगे कि आप चलते हैं तो दूसरे लोग भी चलते हैं।..... हमको बीजों की जरूरत है। आप बीज बनिए, गलिए, वृक्ष बनिए और अपने भीतर से ही फल पैदा करिए और प्रत्येक फल में से ढेरों के बीज पैदा कीजिए। आप अपने भीतर से ही बीज क्यों नहीं बनाएँ?
मित्रो! जिन लोगों ने अपने आपको बनाया है, उनको यह पूछने की जरूरत नहीं पड़ी कि क्या करेंगे? उनकी प्रत्येक क्रिया इस लायक बन गई कि उनकी क्रिया ही सब कुछ करा सकने में समर्थ हो गई। उनका व्यक्तित्व ही इतना आकर्षक रहा कि प्रत्येक सफलता को और प्रत्येक महानता को सम्पन्न करने के लिए काफी था।..... गाँधी जी ने अपने आपको बनाया था तभी हजारों आदमी उसके पीछे चले। बुद्ध ने अपने आपको बनाया, हजारों आदमी उनके पीछे चले।..... समाज की सेवा भी करनी चाहिए, पर मैं यह कहता हूँ कि समाज-सेवा से भी पहले ज्यादा महत्त्वपूर्ण इस बात को आप समझें कि हमको अपनी ‘क्वालिटी’ बढ़ानी है।..... हम अपने आपको फौलाद बनाएँ। अपने आपकी सफाई करें। अपने आपको धोएँ। अपने आपको परिष्कृत करें। इतना कर सकना यदि हमारे लिए सम्भव हो जाए तो समझना चाहिए कि आपका यह सवाल पूरा हो गया कि हम क्या करें? क्या न करें? आप अच्छे बनें। समाज-सेवा करने से पहले यह आवश्यक है कि हम समाज-सेवा के लायक हथियार तो अपने आपको बना लें। यह ज्यादा अच्छा है कि हम अपने आपकी सफाई करें।

शुक्रवार, अगस्त 17, 2012

प्रत्येक व्यक्ति संसार में किसी-न-किसी विशेष उद्देश्य से आता है

















 
प्रत्येक व्यक्ति संसार में किसी-न-किसी विशेष उद्देश्य से आता है 
और उसका यह एक जन्मजात स्वभाव भी होता है।वह उस उद्देश्य 
को पूरा करते हुए स्वभाव के अनुसार कर्म करने में समर्थ होता है। 
इसके विपरीत जाने के लिए वह स्वतंत्र नहीं। उदाहरण के रूप में 
अर्जुन को लीजिए, पृथ्वी के भार को दूर करने के विशेष उद्देश्य से 
उसका जन्म हुआ था। अतएव इस कार्य में वह परतंत्र हुआ। उसे 
यह कार्य करना ही होगा। ईश्वर समस्त प्राणियों के हृदय में रहता 
हुआ उन्हें घुमाता रहता है। हमारे शरीर के भीतर जितने रक्त के कण 
हैं, वे जिस स्थान पर हैं, वहीं रहने के लिए विवश हैं। कहा जा सकता है 
कि हमारी शक्ति उनके भीतर है और हम उनको संचालित करते हैं, परंतु 
वे अपने स्थान पर रहते हुए अपनी चेष्टाओं में स्वतंत्र हैं। ऐसे ही ईश्वर 
द्वारा नियुक्त स्थान पर रहते हुए, संसार में अपने आने के विशेष उद्देश्य 
को पूर्ण करते हुए मनुष्य अपनी दूसरी चेष्टाओं में स्वतंत्र है। यही है मनुष्य 
का कर्म-स्वातंत्र्य। इसीलिए भगवान ने ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ कहा है, 
केवल कर्म में अधिकार है, स्वभाव परिवर्तन या ईश्वर के दिए स्थान-परिवर्तन 
में नहीं।मा फलेषु कदाचन्—फल में तेरा अधिकार कभी नहीं है। अत: कर्म
का यह फल होगा ही या यह फल होना चाहिए, ऐसा सोचकर कर्म करने वाले
सर्वदा दु:ख पाते हैं।

गुरुवार, जुलाई 26, 2012

परमात्मा दूर नहीं है फिर ....

























सुख को भोगो दुःख को समझो परमात्मा दूर नहीं है फिर ....
सुख को जिओ दुःख को पहचानो मोक्ष दूर नहीं है फिर ......
सुख को पहचानो... पहचानते -पहचानते महासुख हो जायेगा ....
दुःख को पहचानते -पहचानते दुःख के कारण तिरोहित हो जायेगा उस घडी को ही सच्चिदानंद कहा गया है .

बुधवार, जुलाई 25, 2012

कोई विकल्प है नहीं.............





















मिठाई-मिठाई रटते रहने और उनके स्वरूप-स्वाद का 
आलंकारिक वर्णन करते रहने भर से न तो मुँह मीठा होता है,
और न पेट भरता है। उसका रसास्वादन करने और लाभ उठाने 
का तरीका एक ही है, कि जिसकी भावभरी चर्चा की जा रही है, 
उसे खाया ही नहीं, पचाया भी जाय। धर्म उसे कहते हैं, जो धारण
 किया जाय। उस आवश्यकता के पूर्ति के लिए कथा-प्रवचनों को 
कहते-सुनते रहना भी कुछ कारगर न हो सकेगा। बात तो तभी बनेगी, 
जब जिस प्रक्रिया का माहात्म्य कहा-सुना जा रहा हो, उसे व्यवहार
 में उतारा जाय। व्यायाम किए बिना कोई पहलवान कहाँ बन पाता है?
 इसी प्रकार धर्म के तत्त्वज्ञान को व्यावहारिक जीवनचर्या में उतारने के
 अतिरिक्त और कोई विकल्प है नहीं।

बुधवार, जुलाई 18, 2012

ईश्वर के यहाँ देर हो सकती है, अन्धेर नहीं..........


ईश्वर के यहाँ देर हो सकती है, अन्धेर नहीं। सरकार और समाज 
से पाप को छिपा लेने पर भी आत्मा और परमात्मा से उसे छिपाया 
नहीं जा सकता। इस जन्म या अगले जन्म में हर बुरे-भले कर्म का 
प्रतिफल निश्चित रूप से भोगना पड़ता है। आज का लिया कर्ज कल
चुकाना पड़ेगा। इससे यह नहीं सोचा जा सकता कि कर्ज के नाम पर
लिया हुआ पैसा मुफ्त में मिल गया।  ईश्वरीय  कठोर व्यवस्था उचित
न्याय और उचित कर्मफल के आधार पर ही बनी हुई है। सो तुरन्त न 
सही कुछ देर बाद अपने कर्मों का फल भोगने के लिए हर किसी को
तैयार रहना चाहिए। 

रविवार, जुलाई 15, 2012

संसार भी एक ग्रेविटी है.........




















बहुत-से व्यक्ति थे जो पहले सिद्धान्तवाद की राह पर चले और भटक
 कर कहाँ से कहाँ पहुँचें? भस्मासुर का पुराना नाम बताऊँ आपको! 
मारीचि का पुराना नाम बताऊँ आपको। ये सभी योग्य तपस्वी थे। 
पहले जब उन्होंने उपासना-साधना शुरू की थी, तब अपने घर से तप 
करने के लिए हिमालय पर गए थे। तप और पूजा-उपासना के साथ-साथ
 में कड़े नियम और व्रतों का पालन किया था। तब वे बहुत मेधावी थे, 
लेकिन समय और परिस्थितियों के भटकाव में वे कहीं के मारे कहीं चले गए। भस्मासुर का क्या हो गया? जिसको प्रलोभन सताते हैं वे भटक जाते हैं और कहीं के मारे कहीं चले जाते हैं।
साधु-बाबाजी जिस दिन घर से निकलते हैं, उस दिन यह श्रद्धा लेकर निकलते हैं,कि हमको संत बनना है, महात्मा बनना है, ऋषि बनना है, तपस्वी बनना है।लेकिन थोड़े दिनों बाद वह जो उमंग होती है, वह ढीली पड़ जाती है और ढीली पड़ने के बाद में संसार के प्रलोभन उनको खींचते हैं। किसी की बहिन-बेटी की ओर देखते हैं, किसी से पैसा लेते हैं। किसी को चेला-चेली बनाते हैं। किसी की हजामत बनाते हैं। फिर जाने क्या से क्या हो जाता है? पतन का मार्ग यहीं से आरम्भ होता है। गे्रविटी-गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी की हर चीज को ऊपर से नीचे की ओर खींचती है।संसार भी एक ग्रेविटी है। आप लोगों से सबसे मेरा यह कहना है,कि आप गै्रविटी से खिंचना मत। रोज सबेरे उठकर भगवान के नाम के साथ में यह विचार किया कीजिए कि हमने किन सिद्धान्तों के लिए समर्पण किया था?
 और पहला कदम जब उठाया था तो किन सिद्धान्तों के आधार पर उठाया था? उन सिद्धान्तों को रोज याद कर लिया कीजिए। रोज याद किया कीजिए कि हमारी उस श्रद्धा में और उस निष्ठा में, उस संकल्प और उस त्यागवृत्ति में कहीं फर्क तो नहीं आ गया। संसार में हमको खींच तो नहीं लिया। कहीं हम कमीने लोगों की नकल तो नहीं करने लगे। आप यह मत करना। अब एक और नई बात शुरू करते हैं।



गुरुवार, जुलाई 05, 2012

"क्या हम ईश्वर को मानते है ?






















 

 

ईश्वर और परलोक आदि के मानने की बात मुँह से न कहिये।

 जीवन से न कहकर मुँह से कहना अपने को और दुनिया 

को धोखा देना है । हममें से अधिकांश  ऐसे धोखेबाज ही हैं।

 इसलिये हम कहा करते है कि हजार में नौ-सौ निन्यानवे

 व्यक्ति ईश्वर को नहीं मानते । मानते होते तो जगत में पाप

 दिखाई न देता ।

 अगर हम ईश्वर को मानते तो क्या अँधेरे में पाप करते ?

 समाज या सरकार की आँखों में धूल झोंकते ? उस समय

 क्या यह न मानते कि ईश्वर की आँखों में धूल नहीं झोंकी गई ? 

 हममें से कितने आदमी ऐसे हैं जो दूसरों को धोखा देते समय

 यह याद रखते हों कि ईश्वर की आँखें सब देख रही हैं ? अगर 

 हमारे जीवन में यह बात नहीं है, तो ईश्वर की दुहाई देकर

 दूसरों से झगड़ना हमें शोभा नहीं   देता ।



बुधवार, जून 06, 2012

मुक्ति का अर्थ...............


















मुक्ति का अर्थ होगा बन्धनों से छूटना । विचार करना है कि कौन से बन्धन हैं जिनसे हम बॅंधे हैं, शरीर को रस्सों से तो किसी ने  जकड़ नहीं रखा है फिर मुक्ति किससे ? 
मुक्ति वस्तुत: अपने दोष-दुर्गुणों से, स्वार्थ-संकीर्णता से, क्रोध-अंहकार से, लोभ-मोह से, पाप-अविवेक से प्राप्त करनी चाहिए । यह अंतरंग की दुर्बलता ही सबसे बड़ा बन्धन है ।

स्वर्ग और मुक्ति अपने दृष्टिकोण को परिष्कृत करके हम इसी जीवन में प्राप्त कर सकते हैं, इसके लिए मृत्यु काल तक की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं ।

मंगलवार, मई 15, 2012

गुरुत्वाकर्षण की खोज मह्रिषी भाष्कराचार्य द्वारा प्रमाण सहित...

























हम सभी विद्यालयों में पढ़ते हैं की न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण की खोज की थी, पर आप को ये जान कर कैसा लगेगा कि गुरुत्वाकर्षण का नियम सर्वप्रथम न्यूटन ने नहीं बल्कि एक हिन्दू ने खोजा था?
इसिलिए हमें हिन्दू होने पर गर्व है!

जिस समय न्यूटन के पूर्वज जंगली लोग थे ,उस समय मह्रिषी भाष्कराचार्य ने पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति पर एक पूरा ग्रन्थ रच डाला था ।

भास्कराचार्य सिद्धान्त की बात कहते हैं कि वस्तुओं की शक्ति बड़ी विचित्र है।

"मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो,विचित्रावतवस्तु शक्त्य:।।"
सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय - भुवनकोश

आगे कहते हैं-
"आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं,गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या।
आकृष्यते तत्पततीव भाति,समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।"
- सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय - भुवनकोश

अर्थात् पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं। पर जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियाँ संतुलन बनाए रखती हैं। 

ऐसे ही अगर यह कहा जाय की विज्ञान के सारे आधारभूत अविष्कार भारत भूमि पर हमारे विशेषज्ञ ऋषि मुनियों द्वारा हुए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ! सबके प्रमाण भी उपलब्ध हैं !

सोमवार, अप्रैल 16, 2012

पूरी कायनात मे, पूरी दुनिया मे सिर्फ़ ध्वनि पैदा होती है, शब्द नही.....



















 
 
क बार किसी बच्चे ने मुझ से पूछा कि "ओम नम: शिवाय" का क्या मतलब है? तो मैने कहा कि इसका मतलब है भगवान शिव को नमस्कार करो या मैं भगवान शिव को नमस्कार करता हूँ. तो वो बोला इसमे मंत्र क्या हुआ? मैं सोच मे पड़ गया कि वाकई ही इसमे मंत्र क्या हुआ? 
मेरे एक पेशेंट  थे, शर्मा जी. उन्होने 3-4 दिनो तक पत्नी संग महामृत्युंज मन्त्र का जाप करवाया और उसके पूरा होने के दो दिन बाद हार्ट फेल से मृत्यु को प्राप्त हो गये! आख़िर महामृत्युंज मन्त्र ने अपना काम क्यों नही किया?
 डॉ शिवानंद, जी ने  अपनी एक पुस्तक मे गायत्री मंत्र के बारे मे लिखा कि इसका जाप करने से आदमी स्मस्त तरह की बीमारी से मुक्त हो जाता है! ये बात एक जर्मन जर्नलिस्ट ने पढ़ी और उछल पड़ा !! उसने सोचा ये आदमी जीनियस है जिसने इतनी बड़ी ईजाद कर दी, दुनिया भी पागल है पता नही किस किस को नोबल पुरस्कार दे देती है. इस डॉ शिवानंद को देना चाहिए. सारी बीमारियाँ एक झटके मे ख़तम!! उसे शक की कोई गुंजाइश भी नही लगी क्योंकि शिवानंद एक क्वालिफाइड डॉक्टर था सो ऐसा आदमी जब अध्यात्म मे उतरेगा तो तत्थ के साथ ही बोलेगा! पूरा निरीक्षण करके ही बोलेगा! अब उस बेचारे को क्या पता हिन्दुस्तान मे ऐसे बोलने वाले गली गली मे मिल जाएगें! क्या डॉ और क्या इंजिनियर यहाँ सारे पढ़े लिखे पागल बसते है! विज्ञान पढ़ लिया है पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण किसी का नही है. इन शॉर्ट वो जर्नलिस्ट भारत आया और ढूँढता ढूँढता डॉ शिवानंद के आश्रम पहुँच गया, उसे वहाँ शिवानंद का एक चेला मिला तो उसने चेले से कहा कि मुझे डॉ. शिवानंद से मिलना है तो चेला बोला कि आप अभी गुरुजी से नही मिल सकते. कारण पूछने पर चेले ने बताया कि गुरुजी बीमार है सो अभी नही मिल सकते, दो चार दिन बाद आना! वो जर्मन जर्नलिस्ट तो हैरान रह गया, उसने कहा कि खुद शिवानंद ने लिखा है कि इस मंत्र से समस्त बीमारियाँ ठीक हो जाती है तो वो इसका जाप करके ठीक क्यों नही हो जाते! अब चेला बेचारा क्या बोलता, असलियत तो सभी को पता है! असल धंधा कुछ और होता है, ये तो दिखावे के बोल बचन है. खैर चेले ने उसे सारी असली बात बता दी कि ऐसा कहते है पर होता कुछ नही! वो बेचारा जर्नलिस्ट तो शॉक्ड रह गया " इतना बड़ा फ्रॉड!" वो वापस जर्मनी चला गया और वहाँ उसने क्या लिखा वो जाने दो..... समझ सकते हो कि हिन्दुस्तानियो के बारे मे क्या लिखा होगा :-)
वेल्ल कुल सार इतना है कि क्या ये बाते वाकई ही झूठी है? मंत्र अपना काम क्यों नही करते? हमारे ऋषि मुनि क्या ग़लत थे या मंत्र ही ग़लत है !
दरअसल हिंदू धर्म मे विधियाँ और सिद्धियाँ पाने के तीन तरीके है : तंत्र, मंत्र और यंत्र. हमारा सारा तप और योग इन्ही तीन चीज़ो द्वारा संपन्न होता है. भक्ति अलग चीज़ है. भक्ति की शक्ति भगवान पर, आस्था पर खड़ी है! भगवान नही है तो भक्ति भी पैदा नही हो सकती! तप और योग किसी भगवान की शक्ति को नही बल्कि अपनी अंदरूनी शक्तियो को जगाने के तरीके है. सारा खेल उर्जा को जगाने, उठाने के लिए है. उर्जा कंट्रोल हो गई तो बड़े बड़े काम सिद्ध होने लगते है. यानी प्यूर्ली गेम ऑफ पावर!
ऋषि मुनियो ने बहुत समय तक ये कहा कि शास्त्र ना लिखे जाए वैसे भी शास्त्र कहा जाता था, बताया जाता था. सिखाया जाता था पर लिखा नही जाता था! लिखा हुआ शास्त्र नही होता, किताब या ग्रंथ होता है. पर बेवकूफ़ ब्राह्मणवाद ने इसे लिख दिया और यही से इसका सारा प्रभाव खो गया! ऋषि मुनि अपने गुरुकुल मे शिष्यो को मंत्रो का उच्चारण सिखाया करते थे जो मौखिक था, लिखित नही!! कहाँ सुर लंबा करना है और कहाँ धीमा, सब सिखाया जाता था. बिल्कुल वैसे ही जैसे आप गायकी सीखते है, सब रियाज़ पे डिपेंड करता है ना की पढ़के रटना है! मंत्र सारा खेल ध्वनि का है और ध्वनि लिखी नही जा सकती! शब्द लिखा जा सकता है!! और आज आप शब्द बोल रहे हो ना की ध्वनि निकाल रहे हो तो मंत्र असर कैसे करेगा? आप किसी को किस करते हो अगर उसे लिखोगे तो किस की आवाज़ को कैसे लिखोगे? "पुच्च या अक्स" पर ये तो शब्द बन गया ये वो सही  ध्वनि नही है जो किस करते समय निकली थी! महत्व ध्वनि का है और हम शब्द मे उलझ जाते है. ट्रिन ट्रिन, क्लिक, टिप टिप , पुच्च, ह्म्म, पियू, भो भो, टन टन, छीशी, उँआं, छुक छुक, ढम ढम, ठक ठक, सर्ररर, पर्र्ररर, छिंन्न्न्, छपाक इत्यादि सब ध्वनि को शब्दो मे बदला गया है! आप इसे भाषानुसार पढ़ोगे तो कुछ हासिल नही होगा, सही  ध्वनि सुनोगे तो दिलो दिमाग़ पे असर होगा !!  ध्वनि एक उर्जा है जो मंत्रो मे व्याप्त होती थी और असर उसी का होता था नाकी शब्दो का ! मंत्रो से ही संगीत और गायकी निकली, शास्त्रीय संगीत या गायन मे जो प्रभाव है उसका बेस वही ध्वनि है जो मंत्रो मे होती है. सुबह, दोपहर, शाम और रात के मूड के हिसाब से राग बनाए गये. अब उस रागो के असर से आप मंत्र के असर को समझ सकते है. जीवन के खास खास मौको के लिए खास खास मंत्र बनाए गये ताकि तनाव ना रहे.
ओम भी एक शब्द है जिसे लिखा गया है वरना इसका उच्चारण एक गूँज है बस, पेट फेफड़ो और गले से आती हुई हवा की आवाज़ पर हम इसे लिखेगें 'ओम' ! अब 'आ' पे कितना ज़ोर देना है या 'ओ' पे कितना या 'म' पे कितना, कुछ पता नही. तो सही सही उच्चारण निकलेगा कैसे? जब ओरिजनल उच्चारण ही नही निकलेगा तो मंत्र अपना काम कैसे करेगें! काम तो उन ध्वनियो ने करना था जो हमने निकाली ही नही! सो लिखे हुए मंत्र सब वेस्ट हो गये और हम आज खा मा खा के शब्दो से खेल रहे है.
पूरी कायनात मे, पूरी दुनिया मे सिर्फ़ ध्वनि पैदा होती है, शब्द नही! हवा की सायँ सायँ, पेड़ो के पत्तो की आपस मे टकरा कर आती आवाज़, पानी का कल कल, जानवरो की आवाज़े, पंछीयो की चहचाहट, मशीनो की आवाज़, हमारे कदमो की आहट इवन हमारी हँसी, रोना, चीखना सारे भाव सिर्फ़ ध्वनि पैदा करते है. शब्द हमारी इज़ाद है और अपनी इस मेनमेड थिंग के कारण हम असली शक्ति (ध्वनि) से दूर होते चले गये! सच कहूँ तो बिना शब्द के जो ध्वनि हम सुनते है उससे हम सही नतीजे पर पहुँच जाते है, शब्द उल्टा भटका देते है. अँधा आदमी या कोई बच्चा या पागल...  कोई भी हो ध्वनि सुनकर सब समझ जाएगा कि क्या हुआ है! शब्द झूठ बोल सकते है पर ध्वनि कभी झूठ नही बोलती.
आज यही हाल मंत्र का है! हम शब्द और उसका भावार्थ की पढ़ते और समझते है पर उसका असर या आउटपुट निल्ल बटा निल्ल. ऋषियो ने जो बरसो मेहनत करके ध्वनि इज़ाद की थी जिससे वो हर चीज़ को बाँध लेते थे, उसके असर से ख़तरनाक जानवर और आधियों को भी रोक लेते थे इवन बरसात भी ले आते थे और दूसरी शक्तियो को भी बाँध लेते थे. सब खो गया!! क्योंकि दूसरो को मंत्र सीखने सिखाने मे ज़्यादा मेहनत ना करती पड़े इसके लिए ब्राह्मणवाद ने इसे लिख दिया और लिखते ही सारा असर उड़ान छू!! संगीत की तरह इसे रियाज़ और उच्चारण पर रखते तो शायद आगे ओर कमाल कर सकते थे. अब ओम भुर्भुव: स्वाहा करो या ओम ब्लिंग ब्लोंग ब्लांग करो, कोई फ़र्क नही पड़ने वाला. आज मंत्र सिर्फ़ एक कोट और उसका मतलब बनकर रह गया. आपने एक शब्द सुना होगा "मंत्र मुग्ध" हो जाना यानी बँध जाना, आज ऐसा नही होता क्योंकि मंत्रो मे मौजूद मुग्ध करने वाली ध्वनि नदारद है. अपने बनाए शब्दो से खेलते रहिए. हवन करिए या शादी के मंत्र पढ़िए, कुछ शुभ लाभ नही होना!

सोमवार, अप्रैल 09, 2012

स्मरण शक्ति बढ़ाने का व्यायाम...........























 
 
सुने हुए शब्दों का स्मरण करने के लिये यह अभ्यास
 अच्छा है कि किसी मेले आदि ऐसी जगह में जावें, 
जहाँ शोरगुल हो रहा हो और अनेक प्रकार की आवाजें 
आ रही हों। इन आवाजों में से किसी एक प्रकार के शब्द
 पर अपना ध्यान जमाइए, जैसे तांगा चलने की खड़-खड़ 
के ऊपर चित्त को केंद्रित करके उन्हीं का शब्द सुनिये और
 इससे उनकी दूरी, तेजी, संख्या, पहिये आदि के बारे में
 अनुमान लगाइये। अन्य प्रकार के शब्दों पर से मन को 
रोक कर तांगो की खड़खड़ पर ही मन लगाना चाहिए।
 इसी तरह ग्रामोफोन के रिकार्डों या किसी बातचीत को 
शोरगुल के बीच में ठीक प्रकार सुनने का प्रयत्न कीजिए।
 बड़े-बड़े वाक्यों को सुनकर उन्हें लिखिए। इस प्रकार के 
अभ्यासों से कर्णेद्रिय की सहायता से स्मरण शक्ति बढ़ाई 
जा सकती है।


शनिवार, मार्च 31, 2012

पाप कर्मों से बचाव...........
























 
बुरे विचार, नीच कर्मों को करने की इच्छाएँ एक प्रकार 
की दाहक चिनगारियाँ हैं, जो जहाँ रहती हैं, वहाँ के पदार्थों
 को जलाती हैं । कोई मनुष्य आग की लपटों से खेलना चाहे 
तो वह बिना झुलसे बच नहीं सकता । यदि आपकी बुद्धि छल, 
दंभ, द्वेष, दुराचार, क्रोध, कलह में लगी रहती है, तो निश्चय
 समझिये कि आप चाहे सरस्वती के पुत्र ही क्यों न हों, कुछ
 ही समय में बाजारू गुंडों की श्रेणी में पहुँच जायेंगे ।

सद्बुद्धि उन्हें हो सकती है, जिनका जीवन व्यवस्थित और संयत है 
एवं जो दुर्गुणों की नहीं, सतगुणों की उपासना करते हैं । सत्यनिष्ठा, 
प्रेम, उदारता, सरलता, दया, सेवा, आत्मीयता, स्वतंत्रता आदि गुणों
 के पौधों के साथ-साथ सद्बुद्धि की लता भी बढ़ती है । यह लता-गुल्म 
एक ही क्यारी में उगे हुए हैं, दोनों की एक खुराक है । याद रखिये कि जिसके सद्गुण सूख जायेंगे-उसकी सद्बुद्धि भी हरी न रह सकेगी, 
इसलिए जो बुद्धिमान् बनना चाहता है, उसे सद्गुणी भी बनना चाहिए ।

बुधवार, मार्च 14, 2012

अभ्यास से उन्नति.........





















अभ्यास से उन्नति जीवन का अखंड नियम है,
 क्योंकि इससे आत्मा की प्राणशक्ति को अधिक
 क्रिया करनी पड़ती है और वह नित्य व्यवहार में
 आने वाले चाकू की तरह मुर्छा आदि से मुक्त रहकर
 तेज ही होती है। शारीरिक और मानसिक विकास 
के शास्त्रीय सिद्धांतों पर विचार करने से यह सिद्ध 
होता है कि मानसिक विकास करना, अपनी बुद्धि 
को बढ़ाना, मनुष्य के अपने हाथ में है और वह
 प्रयत्नपूर्वक बुद्धिमान् बन सकने में सर्वथा स्वतंत्र है।