गुरुवार, अगस्त 30, 2012

यह संसार कर्मफल व्यवस्था के आधार पर चल रहा है.....

























यह संसार कर्मफल व्यवस्था के आधार पर चल रहा है। 
जो जैसा बोता है वह वैसा काटता है। क्रिया की प्रतिक्रिया 
होती है। पेण्डुलम एक ओर चलता है तो लौट कर उसे फिर
 वापिस अपनी जगह आना पड़ता है। गेंद को जहाँ फेंक कर 
मारा जाय वहाँ से लौट कर उसी स्थान पर आना चाहेगी जहाँ
 से फेंकी गई थी। शब्द वेदी बाण की तरह भले बुरे विचार 
अन्तरिक्ष में चक्कर काट कर उसी मस्तिष्क पर आ विराजते हैं,
 जहाँ से उन्हें छोड़ा गया है। कर्म के सम्बन्ध में भी यही बात है।
 दूसरों के हित अनहित के लिए जो किया गया है उसकी प्रतिक्रिया
 कर्ता के ऊपर तो अनिवार्य रूप से बरसेगी, जिसके लिए वह कर्म
 किया गया था, उसे हानि या लाभ भले ही न हो। गेहूँ से गेहूँ
 उत्पन्न होता है और गाय अपनी ही आकृति प्रकृति का बच्चा जनती है। कर्म के सम्बन्ध में भी यही बात है, उनके प्रतिफल निश्चित रूप से उत्पन्न होते हैं। यदि ऐसा न होता तो इस सृष्टि में घोर अँधेरा छाया हुआ दिखता। तब कोई कुछ भी कर गुजरता और प्रतिफल की चिन्ता न करता।
 आज का बोया बीज कुछ समय बाद फल देता है- आज का जमाया दूध कल दही बनता है-आज का आरम्भ किया अध्ययन, व्यायाम, व्यवसाय तत्काल फल नहीं देता उसकी प्रतिक्रिया उत्पन्न होने में कुछ समय लग जाता है। इसी विलम्ब में मनुष्य की दूरदर्शिता और बुद्धिमतां की परीक्षा है। यदि तत्काल फल मिला करते तो किसी के भले बुरे का निर्णय करने की आवश्यकता ही न पड़ती। झूठ बोलने वाले का मुँह सूज जाया करता, कुदृष्टि डालने वालों की आँखें दर्द करने लगतीं, चोरी करने वालों के हाथों में गठिया हो जाता, तो फिर कोई व्यक्ति कुकर्म करता ही नहीं। ईश्वर ने मनुष्य के निजी विवेक और कर्म स्वातंत्र्य को कार्यान्वित होते रहने के लिए कर्म और फल के बीच अन्तर रखा है। इस धैर्य परीक्षा में जो असफल रहते हैं, वे सत्कर्मों की सुखद सम्भावना पर अविश्वास करके उन्हें छोड़ बैठते हैं और कुकर्मों का हाथों हाथ फल न मिलते देख कर उन पर टूट पड़ते हैं। ऐसी ही अदूरदर्शिता के कारण पक्षी बहेलिये के जाल में फँसते हैं, वे दाना देखते हैं फन्दा नहीं। आटे के लोभ में मछली अपनी गला फँसाती है और बेमौत मारी जाती है। चासनी के लाभ में अन्धाधुन्ध घुस पड़ने वाली मक्खी के पंख चिपक जाते हैं और तड़पते हुए प्राण जाते हैं। यह अदूरदर्शी प्राणी दुर्गति के शिकार बनते हैं। कर्मफल के अनिश्चित होने की बात सोच कर ही मनुष्य कुमार्ग पर चलते हैं- कुकर्म करते हैं और दुर्दशा के जंजाल में फँसते हैं।
 भगवान ने संसार बनाया और उसके साथ साथ ही कर्म प्रतिफल का सुनिश्चित संविधान रच दिया। अपनी निज की लीलाओं में भी उसने इस लक्ष्य को प्रकट किया है। भगवान राम ने बालि को छिपकर तीर मारा, अगली बार कृष्ण बन कर जन्मे राम को उस बहेलिया के तीर का शिकार होना पड़ा, जो पिछले जन्म में बालि था। राम के पिता दशरथ ने श्रवण कुमार के तीर मारा, उसके पिता ने शाप दिया कि युधकर्ता को मेरी तरह ही पुत्र शोक में बिलख बिलख कर मरना पड़ेगा। वैसा ही हुआ भी। राम अपने पिता की सहायता न कर सके और उन्हें कर्म का प्रतिफल भुगतना पड़ा। 
 चक्रव्यूह में फँस कर अभिमन्यु मारा गया, तो उसकी माता सुभद्रा ने अपने भाई कृष्ण से कहा, तुम तो अवतार थे तो फिर अपने भाँजे और अजुर्न सखा के पुत्र को क्यों नहीं बचाया। कृष्ण ने विस्तार पूर्वक कर्म फल की प्रबलता का वर्णन करते हुए सुभद्रा का समाधान किया कि भगवान से भी प्रारब्ध बड़ा है। कर्म फल भुगतने की विवशता हर किसी के लिए आवश्यक हैं।
 कर्म फल की सुनिश्चितता का तथ्य ऐसा है, जिसे अकाट्य ही समझना चाहिए। किये हुए भले बुरे कर्म अपने परिणाम सुख-दुःख के रूप में प्रस्तुत करते रहते हैं। दुःखों से बचना हो तो दुष्कर्मों से पिण्ड छुड़ाना चाहिए, सुख पाने की अभिलाषा हो तो सत्कर्म बढ़ाने चाहिए। ईश्वर को प्रसन्न और रुष्ट करने सत्कर्मों एवं दुष्कर्मों के आधार पर ही बन पड़ता है। शारीरिक एवं मानसिक रोग दुष्कर्मों के फल स्वरूप ही सामने आते हैं। आधि दैविक, आधि भौतिक आध्यात्मिक संकट भी इन्हीं अनाचरणों के कारण उत्पन्न होते हैं। इन विपत्तियों से बचने का एक ही उपाय है कि वर्तमान गतिविधियों का सजजनतापूर्ण निर्धारण किया जाय। भविष्य में दुष्कर्मों से विरत रहने का सुदृढ़ संकल्प किया और उसे निबाहा जाय। साथ ही भूत काल में जो कुकर्म बन पड़े हैं, उनका साहस पूर्वक प्रायश्चित किया जाय। उज्ज्वल भविष्य के निर्माण का यही कारगर उपाय है।


शनिवार, अगस्त 25, 2012

यह मत पूछिए कि हम क्या करें? यह पूछिए कि क्या बनें?

साधकों में से कई व्यक्ति हमसे यह पूछते रहते हैं कि हम क्या करें? मैं उनमें से हर एक से कहता हूँ कि यह मत पूछिए, बल्कि यह पूछिए कि क्या बनें? अगर आप कुछ बन जाते हैं तो करने में भी ज्यादा कीमती है वह। फिर जो कुछ भी कुछ भी आप कर रहे होंगे, वह सब सही हो रहा होगा। आप साँचा बनने की कोशिश करें। अगर आप साँचा बनेंगे तो जो भी गीली मिट्टी आपके सम्पर्क में आएगी, आपके ही तरीके के, आपके ही ढंग के, शक्ल के खिलौने बनते हुए चले जाएँगे। आप सूरज बनें तो आप चमकेंगे और चलेंगे। उसका परिणाम क्या होगा? जिन लोगों के लिए आप करना चाहते हैं, वे आपके साथ-साथ चमकेंगे और चलेंगे।..... हम चलें, हम प्रकाशवान हों, फिर देखेंगे कि जिस जनता के लिए आप चाहते थे कि वह हमारी अनुगामी बने और हमारी नकल करे तो वह ऐसा ही करेगी। आप देखेंगे कि आप चलते हैं तो दूसरे लोग भी चलते हैं।..... हमको बीजों की जरूरत है। आप बीज बनिए, गलिए, वृक्ष बनिए और अपने भीतर से ही फल पैदा करिए और प्रत्येक फल में से ढेरों के बीज पैदा कीजिए। आप अपने भीतर से ही बीज क्यों नहीं बनाएँ?
मित्रो! जिन लोगों ने अपने आपको बनाया है, उनको यह पूछने की जरूरत नहीं पड़ी कि क्या करेंगे? उनकी प्रत्येक क्रिया इस लायक बन गई कि उनकी क्रिया ही सब कुछ करा सकने में समर्थ हो गई। उनका व्यक्तित्व ही इतना आकर्षक रहा कि प्रत्येक सफलता को और प्रत्येक महानता को सम्पन्न करने के लिए काफी था।..... गाँधी जी ने अपने आपको बनाया था तभी हजारों आदमी उसके पीछे चले। बुद्ध ने अपने आपको बनाया, हजारों आदमी उनके पीछे चले।..... समाज की सेवा भी करनी चाहिए, पर मैं यह कहता हूँ कि समाज-सेवा से भी पहले ज्यादा महत्त्वपूर्ण इस बात को आप समझें कि हमको अपनी ‘क्वालिटी’ बढ़ानी है।..... हम अपने आपको फौलाद बनाएँ। अपने आपकी सफाई करें। अपने आपको धोएँ। अपने आपको परिष्कृत करें। इतना कर सकना यदि हमारे लिए सम्भव हो जाए तो समझना चाहिए कि आपका यह सवाल पूरा हो गया कि हम क्या करें? क्या न करें? आप अच्छे बनें। समाज-सेवा करने से पहले यह आवश्यक है कि हम समाज-सेवा के लायक हथियार तो अपने आपको बना लें। यह ज्यादा अच्छा है कि हम अपने आपकी सफाई करें।

शुक्रवार, अगस्त 17, 2012

प्रत्येक व्यक्ति संसार में किसी-न-किसी विशेष उद्देश्य से आता है

















 
प्रत्येक व्यक्ति संसार में किसी-न-किसी विशेष उद्देश्य से आता है 
और उसका यह एक जन्मजात स्वभाव भी होता है।वह उस उद्देश्य 
को पूरा करते हुए स्वभाव के अनुसार कर्म करने में समर्थ होता है। 
इसके विपरीत जाने के लिए वह स्वतंत्र नहीं। उदाहरण के रूप में 
अर्जुन को लीजिए, पृथ्वी के भार को दूर करने के विशेष उद्देश्य से 
उसका जन्म हुआ था। अतएव इस कार्य में वह परतंत्र हुआ। उसे 
यह कार्य करना ही होगा। ईश्वर समस्त प्राणियों के हृदय में रहता 
हुआ उन्हें घुमाता रहता है। हमारे शरीर के भीतर जितने रक्त के कण 
हैं, वे जिस स्थान पर हैं, वहीं रहने के लिए विवश हैं। कहा जा सकता है 
कि हमारी शक्ति उनके भीतर है और हम उनको संचालित करते हैं, परंतु 
वे अपने स्थान पर रहते हुए अपनी चेष्टाओं में स्वतंत्र हैं। ऐसे ही ईश्वर 
द्वारा नियुक्त स्थान पर रहते हुए, संसार में अपने आने के विशेष उद्देश्य 
को पूर्ण करते हुए मनुष्य अपनी दूसरी चेष्टाओं में स्वतंत्र है। यही है मनुष्य 
का कर्म-स्वातंत्र्य। इसीलिए भगवान ने ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ कहा है, 
केवल कर्म में अधिकार है, स्वभाव परिवर्तन या ईश्वर के दिए स्थान-परिवर्तन 
में नहीं।मा फलेषु कदाचन्—फल में तेरा अधिकार कभी नहीं है। अत: कर्म
का यह फल होगा ही या यह फल होना चाहिए, ऐसा सोचकर कर्म करने वाले
सर्वदा दु:ख पाते हैं।