यह संसार कर्मफल व्यवस्था के आधार पर चल रहा है।
जो जैसा बोता है वह वैसा
काटता है। क्रिया की प्रतिक्रिया
होती है। पेण्डुलम एक ओर चलता है तो लौट
कर उसे फिर
वापिस अपनी जगह आना पड़ता है। गेंद को जहाँ फेंक कर
मारा जाय
वहाँ से लौट कर उसी स्थान पर आना चाहेगी जहाँ
से फेंकी गई थी। शब्द वेदी
बाण की तरह भले बुरे विचार
अन्तरिक्ष में चक्कर
काट कर उसी मस्तिष्क पर आ विराजते हैं,
जहाँ से उन्हें छोड़ा गया है। कर्म
के सम्बन्ध में भी यही बात है।
दूसरों के हित अनहित के लिए जो किया गया है
उसकी प्रतिक्रिया
कर्ता के ऊपर तो अनिवार्य रूप से बरसेगी, जिसके लिए वह
कर्म
किया गया था, उसे हानि या लाभ भले ही न हो। गेहूँ से गेहूँ
उत्पन्न
होता है और गाय अपनी ही आकृति प्रकृति का बच्चा जनती है। कर्म के सम्बन्ध
में भी यही बात है, उनके
प्रतिफल निश्चित रूप से उत्पन्न होते हैं। यदि ऐसा न होता तो इस सृष्टि
में घोर अँधेरा छाया हुआ दिखता। तब कोई कुछ भी कर गुजरता और प्रतिफल की
चिन्ता न करता।
आज का बोया बीज कुछ समय बाद फल देता है- आज का जमाया दूध कल दही बनता है-आज का आरम्भ किया अध्ययन, व्यायाम, व्यवसाय तत्काल फल नहीं देता उसकी प्रतिक्रिया उत्पन्न होने में कुछ समय लग जाता है। इसी विलम्ब में मनुष्य की दूरदर्शिता और बुद्धिमतां की परीक्षा है। यदि तत्काल फल मिला करते तो किसी के भले बुरे का निर्णय करने की आवश्यकता ही न पड़ती। झूठ बोलने वाले का मुँह सूज जाया करता, कुदृष्टि डालने वालों की आँखें दर्द करने लगतीं, चोरी करने वालों के हाथों में गठिया हो जाता, तो फिर कोई व्यक्ति कुकर्म करता ही नहीं। ईश्वर ने मनुष्य के निजी विवेक और कर्म स्वातंत्र्य को कार्यान्वित होते रहने के लिए कर्म और फल के बीच अन्तर रखा है। इस धैर्य परीक्षा में जो असफल रहते हैं, वे सत्कर्मों की सुखद सम्भावना पर अविश्वास करके उन्हें छोड़ बैठते हैं और कुकर्मों का हाथों हाथ फल न मिलते देख कर उन पर टूट पड़ते हैं। ऐसी ही अदूरदर्शिता के कारण पक्षी बहेलिये के जाल में फँसते हैं, वे दाना देखते हैं फन्दा नहीं। आटे के लोभ में मछली अपनी गला फँसाती है और बेमौत मारी जाती है। चासनी के लाभ में अन्धाधुन्ध घुस पड़ने वाली मक्खी के पंख चिपक जाते हैं और तड़पते हुए प्राण जाते हैं। यह अदूरदर्शी प्राणी दुर्गति के शिकार बनते हैं। कर्मफल के अनिश्चित होने की बात सोच कर ही मनुष्य कुमार्ग पर चलते हैं- कुकर्म करते हैं और दुर्दशा के जंजाल में फँसते हैं।
भगवान ने संसार बनाया और उसके साथ साथ ही कर्म प्रतिफल का सुनिश्चित संविधान रच दिया। अपनी निज की लीलाओं में भी उसने इस लक्ष्य को प्रकट किया है। भगवान राम ने बालि को छिपकर तीर मारा, अगली बार कृष्ण बन कर जन्मे राम को उस बहेलिया के तीर का शिकार होना पड़ा, जो पिछले जन्म में बालि था। राम के पिता दशरथ ने श्रवण कुमार के तीर मारा, उसके पिता ने शाप दिया कि युधकर्ता को मेरी तरह ही पुत्र शोक में बिलख बिलख कर मरना पड़ेगा। वैसा ही हुआ भी। राम अपने पिता की सहायता न कर सके और उन्हें कर्म का प्रतिफल भुगतना पड़ा।
चक्रव्यूह में फँस कर अभिमन्यु मारा गया, तो उसकी माता सुभद्रा ने अपने भाई कृष्ण से कहा, तुम तो अवतार थे तो फिर अपने भाँजे और अजुर्न सखा के पुत्र को क्यों नहीं बचाया। कृष्ण ने विस्तार पूर्वक कर्म फल की प्रबलता का वर्णन करते हुए सुभद्रा का समाधान किया कि भगवान से भी प्रारब्ध बड़ा है। कर्म फल भुगतने की विवशता हर किसी के लिए आवश्यक हैं।
कर्म फल की सुनिश्चितता का तथ्य ऐसा है, जिसे अकाट्य ही समझना चाहिए। किये हुए भले बुरे कर्म अपने परिणाम सुख-दुःख के रूप में प्रस्तुत करते रहते हैं। दुःखों से बचना हो तो दुष्कर्मों से पिण्ड छुड़ाना चाहिए, सुख पाने की अभिलाषा हो तो सत्कर्म बढ़ाने चाहिए। ईश्वर को प्रसन्न और रुष्ट करने सत्कर्मों एवं दुष्कर्मों के आधार पर ही बन पड़ता है। शारीरिक एवं मानसिक रोग दुष्कर्मों के फल स्वरूप ही सामने आते हैं। आधि दैविक, आधि भौतिक आध्यात्मिक संकट भी इन्हीं अनाचरणों के कारण उत्पन्न होते हैं। इन विपत्तियों से बचने का एक ही उपाय है कि वर्तमान गतिविधियों का सजजनतापूर्ण निर्धारण किया जाय। भविष्य में दुष्कर्मों से विरत रहने का सुदृढ़ संकल्प किया और उसे निबाहा जाय। साथ ही भूत काल में जो कुकर्म बन पड़े हैं, उनका साहस पूर्वक प्रायश्चित किया जाय। उज्ज्वल भविष्य के निर्माण का यही कारगर उपाय है।
आज का बोया बीज कुछ समय बाद फल देता है- आज का जमाया दूध कल दही बनता है-आज का आरम्भ किया अध्ययन, व्यायाम, व्यवसाय तत्काल फल नहीं देता उसकी प्रतिक्रिया उत्पन्न होने में कुछ समय लग जाता है। इसी विलम्ब में मनुष्य की दूरदर्शिता और बुद्धिमतां की परीक्षा है। यदि तत्काल फल मिला करते तो किसी के भले बुरे का निर्णय करने की आवश्यकता ही न पड़ती। झूठ बोलने वाले का मुँह सूज जाया करता, कुदृष्टि डालने वालों की आँखें दर्द करने लगतीं, चोरी करने वालों के हाथों में गठिया हो जाता, तो फिर कोई व्यक्ति कुकर्म करता ही नहीं। ईश्वर ने मनुष्य के निजी विवेक और कर्म स्वातंत्र्य को कार्यान्वित होते रहने के लिए कर्म और फल के बीच अन्तर रखा है। इस धैर्य परीक्षा में जो असफल रहते हैं, वे सत्कर्मों की सुखद सम्भावना पर अविश्वास करके उन्हें छोड़ बैठते हैं और कुकर्मों का हाथों हाथ फल न मिलते देख कर उन पर टूट पड़ते हैं। ऐसी ही अदूरदर्शिता के कारण पक्षी बहेलिये के जाल में फँसते हैं, वे दाना देखते हैं फन्दा नहीं। आटे के लोभ में मछली अपनी गला फँसाती है और बेमौत मारी जाती है। चासनी के लाभ में अन्धाधुन्ध घुस पड़ने वाली मक्खी के पंख चिपक जाते हैं और तड़पते हुए प्राण जाते हैं। यह अदूरदर्शी प्राणी दुर्गति के शिकार बनते हैं। कर्मफल के अनिश्चित होने की बात सोच कर ही मनुष्य कुमार्ग पर चलते हैं- कुकर्म करते हैं और दुर्दशा के जंजाल में फँसते हैं।
भगवान ने संसार बनाया और उसके साथ साथ ही कर्म प्रतिफल का सुनिश्चित संविधान रच दिया। अपनी निज की लीलाओं में भी उसने इस लक्ष्य को प्रकट किया है। भगवान राम ने बालि को छिपकर तीर मारा, अगली बार कृष्ण बन कर जन्मे राम को उस बहेलिया के तीर का शिकार होना पड़ा, जो पिछले जन्म में बालि था। राम के पिता दशरथ ने श्रवण कुमार के तीर मारा, उसके पिता ने शाप दिया कि युधकर्ता को मेरी तरह ही पुत्र शोक में बिलख बिलख कर मरना पड़ेगा। वैसा ही हुआ भी। राम अपने पिता की सहायता न कर सके और उन्हें कर्म का प्रतिफल भुगतना पड़ा।
चक्रव्यूह में फँस कर अभिमन्यु मारा गया, तो उसकी माता सुभद्रा ने अपने भाई कृष्ण से कहा, तुम तो अवतार थे तो फिर अपने भाँजे और अजुर्न सखा के पुत्र को क्यों नहीं बचाया। कृष्ण ने विस्तार पूर्वक कर्म फल की प्रबलता का वर्णन करते हुए सुभद्रा का समाधान किया कि भगवान से भी प्रारब्ध बड़ा है। कर्म फल भुगतने की विवशता हर किसी के लिए आवश्यक हैं।
कर्म फल की सुनिश्चितता का तथ्य ऐसा है, जिसे अकाट्य ही समझना चाहिए। किये हुए भले बुरे कर्म अपने परिणाम सुख-दुःख के रूप में प्रस्तुत करते रहते हैं। दुःखों से बचना हो तो दुष्कर्मों से पिण्ड छुड़ाना चाहिए, सुख पाने की अभिलाषा हो तो सत्कर्म बढ़ाने चाहिए। ईश्वर को प्रसन्न और रुष्ट करने सत्कर्मों एवं दुष्कर्मों के आधार पर ही बन पड़ता है। शारीरिक एवं मानसिक रोग दुष्कर्मों के फल स्वरूप ही सामने आते हैं। आधि दैविक, आधि भौतिक आध्यात्मिक संकट भी इन्हीं अनाचरणों के कारण उत्पन्न होते हैं। इन विपत्तियों से बचने का एक ही उपाय है कि वर्तमान गतिविधियों का सजजनतापूर्ण निर्धारण किया जाय। भविष्य में दुष्कर्मों से विरत रहने का सुदृढ़ संकल्प किया और उसे निबाहा जाय। साथ ही भूत काल में जो कुकर्म बन पड़े हैं, उनका साहस पूर्वक प्रायश्चित किया जाय। उज्ज्वल भविष्य के निर्माण का यही कारगर उपाय है।
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